Friday, March 22, 2013






इंसानों की इस बस्ती में, इंसानों ने ही मोल ना पाया,
पत्थरों को भगवान बनाकर, चार दीवारों में छुपाया,
भूल गए हम, खुले आसमानों में उड़ने वाले उस पंछी को भी ईश्वर ने ही बनाया।

फल, फूल, दूध, दही का चढ़ावा उस पत्थर को चढ़ाया,
इंसानों की भूख को भूल गए हम, जिसको उसी इश्वर ने बनाया।

इन पत्थरों के नाम पर हर दिन का एक रंग बनाया ,
भूल गए हम इस संसार के हर एक रंग को उसी इश्वर ने बनाया।

पत्थरों से बनी उस देवी को, कपड़ो, गहनों से सजाया,
भूल गए करना उस औरत का सम्मान जिसको उसी इश्वर ने बनाया।

पत्थरों  का धर्म बनाकर, उस एक दूजे का खून बहाया ,
भूल गए हम हर इंसान को एक सा, उसी इश्वर ने बनाया।

इंसानों की इस बस्ती में इंसानों ने ही मोल न पाया,
पत्थरों  की पूजा करते करते, ईश्वर के बनाये उस इंसान ने,
अपने अन्दर के इंसान को ही गंवाया।